ओम बिड़ला दूसरी बार बने लोकसभा अध्यक्ष
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अपने दूसरे कार्यकाल के लिए एनडीए उम्मीदवार को चुनने के लिए प्रस्ताव पेश करने के बाद भाजपा सांसद ओम बिड़ला को 18वीं लोकसभा का अध्यक्ष चुना गया है।
लोकसभा अध्यक्ष:
लोकसभा अध्यक्ष सदन के संवैधानिक तथा औपचारिक प्रमुख होता है जो मुख्य रूप से लोकसभा के कार्यों के प्रबंधन के लिए उत्तरदायी होता है।
- पीठासीन अधिकारी: लोकसभा अध्यक्ष लोकसभा का पीठासीन अधिकारी होता है एवं उसकी अनुपस्थिति में लोकसभा के उपाध्यक्ष सदन के पीठासीन अधिकारी के रूप में कार्य करते हैं।
- संवैधानिक प्रावधान: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 93 लोकसभा के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष दोनों के पदों से संबंधित है।
लोकसभा के अध्यक्ष के पद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
- 1919 का भारत सरकार अधिनियम (मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार): इसके प्रावधानों के तहत, 1921 में लोकसभा अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष का पद निर्मित किया गया था।
- यद्यपि, उस समय, लोकसभा अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष के पद को क्रमशः राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति कहा जाता था।
- 1935 का भारत सरकार अधिनियम: इसने राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति के नामों को क्रमशः अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष में बदल दिया।
- यद्यपि, पुराना नामकरण 1947 तक जारी रहा।
लोकसभा अध्यक्ष के पद हेतु निर्वाचन:
- अर्हता: भारत के संविधान के अनुसार, अध्यक्ष को सदन (लोकसभा) का सदस्य होना चाहिए।
- परिपाटी: एक परंपरा विकसित हुई है जहां सत्तारूढ़ दल सदन में अन्य दलों तथा समूहों के नेताओं के साथ अनौपचारिक परामर्श के बाद अपने उम्मीदवार को नामित करता है।
- इस तरह लोकसभा के निर्वाचित अध्यक्ष को लोकसभा के सभी सदस्यों का सम्मान एवं आज्ञाकारिता प्राप्त होती है।
- निर्वाचन प्रक्रिया: लोकसभा के अध्यक्ष का निर्वाचन सदन में उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के साधारण बहुमत से अन्य सभी सदस्यों के मध्य से होता है।
- आम तौर पर, अध्यक्ष बहुमत सत्ताधारी दल से संबंधित होता है। हालांकि, कुछ ऐसे मामले भी हैं जब निर्वाचित अध्यक्ष लोकसभा के बहुमत वाले सत्तारूढ़ दल से संबंधित नहीं थे।
- उदाहरण के लिए- जी. एम. सी. बालयोगी, मनोहर जोशी, सोमनाथ चटर्जी।
लोकसभा अध्यक्ष के पद की शर्तें:
- पदावधि: अध्यक्ष अपने निर्वाचन की तिथि से आगामी लोकसभा की पहली बैठक से ठीक पूर्व तक पद धारण करता है।
- लोकसभा के विघटन के पश्चात भी, अध्यक्ष अपना पद रिक्त नहीं करता है एवं नव-निर्वाचित लोकसभा की बैठक तक पद पर बना रहता है।
- इसका तात्पर्य है कि उसका पद लोकसभा की शर्तों से परे है।
- पुन:निर्वाचन हेतु पात्रता: लोकसभा का अध्यक्ष भी पुनः निर्वाचन हेतु पात्र है।
अध्यक्ष की भूमिका और शक्तियाँ:
व्याख्या: वह सदन के अंदर भारत के संविधान के प्रावधानों, लोकसभा की प्रक्रिया और कार्य संचालन के नियमों तथा संसदीय मामलों का अंतिम व्याख्याकार होता है।
- वह इन प्रावधानों की व्याख्या के मामलों में अक्सर ऐसे निर्णय देता है जिनका सदस्यों द्वारा सम्मान किया जाता है और जो प्रकृति में बाध्यकारी होते हैं।
दोनों सदनों की संयुक्त बैठक: वह संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक (Joint Sitting) की अध्यक्षता करता है।
- ऐसी बैठकें किसी विधेयक पर दोनों सदनों के बीच गतिरोध को दूर करने के लिये राष्ट्रपति द्वारा बुलाई जाती हैं।
सदन का स्थगन: वह सदन को स्थगित कर सकता है या सदन की कुल संख्या का दसवाँ हिस्सा (जिसे गणपूर्ति कहा जाता है) की अनुपस्थिति में बैठक को स्थगित कर सकता है।
निर्णायक मत: अध्यक्ष पहली बार में मत नहीं देता लेकिन बराबरी की स्थिति में (जब किसी प्रश्न पर सदन समान रूप से विभाजित हो जाता है) अध्यक्ष को मत देने का अधिकार होता है।
- ऐसे मत को निर्णायक मत (Casting Vote) कहा जाता है, जिसका उद्देश्य गतिरोध का समाधान करना होता है।
धन विधेयक: वह किसी विधेयक के धन विधेयक होने या नहीं होने का फैसला करता है और इस प्रश्न पर उसका निर्णय अंतिम होता है।
सदस्यों की अयोग्यता: दसवीं अनुसूची (Tenth Schedule) के प्रावधानों के तहत दल बदल के आधार पर उत्पन्न होने वाले लोकसभा के किसी सदस्य की अयोग्यता के प्रश्न पर निर्णय अध्यक्ष ही करता है।
- यह शक्ति भारतीय संविधान में 52वें संशोधन द्वारा अध्यक्ष में निहित है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1992 में फैसला सुनाया कि इस संबंध में अध्यक्ष का निर्णय न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) के अधीन है।
आईपीजी की अध्यक्षता: अध्यक्ष भारतीय संसदीय समूह (Indian Parliamentary Group- IPG) के पदेन अध्यक्ष के रूप में कार्य करता है, यह समूह भारत की संसद और विश्व की विभिन्न संसदों के बीच एक कड़ी है।
- वह देश में विधायी निकायों के पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन के पदेन अध्यक्ष के रूप में भी कार्य करता है।
समितियों का गठन: लोकसभा की समितियाँ अध्यक्ष द्वारा गठित की जाती है और इसके निर्देशन में कार्य करती हैं।
- इसके द्वारा सभी संसदीय समितियों के अध्यक्ष मनोनीत किये जाते हैं।
- इसकी अध्यक्षता में कार्य सलाहकार समिति (Business Advisory Committee), सामान्य प्रयोजन समिति (General Purposes Committee) और नियम समिति (Rules Committee) जैसी समितियाँ सीधे काम करती हैं।
अध्यक्ष के विशेषाधिकार: अध्यक्ष सदन, उसकी समितियों और सदस्यों के अधिकारों तथा विशेषाधिकारों का संरक्षक होता है।
- विशेषाधिकार के किसी भी प्रश्न को परीक्षा, जाँच और प्रतिवेदन के लिये विशेषाधिकार समिति को सौंपना अध्यक्ष पर निर्भर करता है।
अध्यक्ष को हटाना:
सामान्यतः लोकसभा अध्यक्ष लोकसभा के कार्यकाल तक अपने पद पर बना रहता है। हालाँकि निम्नलिखित शर्तों के अंतर्गत अध्यक्ष को लोकसभा के कार्यकाल से पहले अपने पद को खाली करना पड़ सकता है:
- यदि वह लोकसभा का सदस्य नहीं रहता है।
- यदि वह उपाध्यक्ष को पत्र लिखकर इस्तीफा दे देता है।
- यदि उसे लोकसभा के सभी सदस्यों के बहुमत से पारित प्रस्ताव द्वारा हटा दिया जाता है।
अधिसूचना: ऐसा प्रस्ताव अध्यक्ष को 14 दिन की अग्रिम सूचना देने के बाद ही पेश किया जा सकता है।
जब अध्यक्ष को हटाने का प्रस्ताव सदन के विचाराधीन हो, तो वह बैठक में उपस्थित हो सकता है लेकिन अध्यक्षता नहीं कर सकता।
आगे की राह:
- विवाद समाधान में भूमिका: गठबंधन सरकार में, जहाँ अलग-अलग विचारधाराओं और एजेंडों वाली कई दल एक साथ आते हैं, वहाँ संघर्ष तथा विवाद अपरिहार्य हैं। लोकसभा अध्यक्ष को इन विवादों में मध्यस्थता करने तथा सभी हितधारकों को स्वीकार्य समाधान ढूँढने में निष्पक्षता बनाए रखनी चाहिये।
- विधायी परिणामों पर प्रभाव: विधायी एजेंडे को नियंत्रित करके, लोकसभा अध्यक्ष विधेयकों के पारित होने और सरकार की समग्र नीति दिशा को प्रभावित कर सकता है।
- भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा, “अध्यक्ष की भूमिका सिर्फ सदन चलाने तक ही सीमित नहीं है; बल्कि सरकार और विपक्ष के बीच सेतु बनने और यह सुनिश्चित करने की भी है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया कायम रहे”।
- गैर-पक्षपात सुनिश्चित करना: पूर्ण गैर-पक्षपात सुनिश्चित करने के लिये लोकसभा अध्यक्ष द्वारा अपने राजनीतिक दल से त्याग-पत्र देने की प्रथा को संविधान के शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को कायम रखने के लिये आगे बढ़ाया जा सकता है।
- वर्ष 1967 में लोकसभा अध्यक्ष बनने पर एन. संजीव रेड्डी द्वारा अपने दल से त्याग-पत्र देना, गैर-पक्षपातपूर्ण आचरण का सकारात्मक उदाहरण प्रस्तुत करता है।
निष्कर्ष:
लोकसभा अध्यक्ष केवल पीठासीन अधिकारी नहीं होते, बल्कि सदन के कामकाज को आकार देने और सत्तारूढ़ दल तथा विपक्ष के बीच संतुलन को प्रभावित करने में शक्ति रखते हैं, खासकर गठबंधन सरकार के मामले में। अध्यक्ष के निर्णयों और कार्यों का सरकार के कामकाज तथा स्थिरता पर दूरगामी प्रभाव पड़ सकता है।